मृत्योर्मा जीवनं गमय
नारीवाद
नहीं बपौती –
गाँव अथवा महानगर की
निम्नवर्ग या उच्चवर्ग की
अंग्रेज़ी या हिन्दीभाषी की
राजनेता या बुद्धिजीवी की
क्रन्दन है यह
अस्तित्व की उस पीड़ा का
जो आँकड़ों में ढल तो जाती है
पर चैन नहीं पाती!
त्रासदी है यह
गर्भ में सिमटी पड़ी
मेरी उस बेटी की
जो भ्रूणहत्या के भय से
पनप नहीं पाती!
ज्वाला है यह
धधक रही अनगिनत चिताओं की
जो सदियों से आज तलक
बुझ नहीं पाती!
चाह है यह
अनन्त के सौन्दर्य
व विराट के साहचर्य की
जो आदिसृष्टि से
मुझे सताती
स्वप्न है यह
अर्धनारीश्वर की सार्थकता का
जो बहुत चाहकर भी
नहीं होने पाता
वास्तविकता
‘‘औरत’’ , ‘‘वूमैन’’ , ‘‘स्त्री’’
शब्द हो कोई
क्या फर्क पड़ता है?
हर देश, काल, भाषा में
रक्ताश्रुसिक्त मेरी कथा है
मेरा नारीवाद
राम की मर्यादा
लक्ष्मण की रेखा
भीम की गदा
व कृष्ण-प्रदत्त चीर
से कहीं अधिक चाहता है
दुस्साहस है यह
एक नन्ही बदली का
नहीं पर्याप्त जिसे
मात्र कोना
और जो चाहे
विस्तृत नभ होना
यात्रा है यह
सांझी पीड़ा व सांझी नियति की
जिसका मार्ग हो कर गुजरता है –
कतिहार से कायरो
भागीरथी से मिसीसिपी
सैफो से तसलीमा नसरीन
जानाबाई से अमृता प्रीतम
लक्ष्मीबाई से भंवरी बाई
सब के सब हैं
मेरे सहयात्री
असतो मा सद् गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा जीवनं गमय
जानती हो
सूर्या, सावित्री, घोषा, विश्वावरा
कैसे गया
तुम्हें व तुम्हारी जाति को
छला ?
उदात्त चिन्तन के प्रमाणस्वरूप
वेदों में जब सम्मिलित की जा रही थीं
तुम्हारी विरचित ऋचाएँ
तब भी गूँज रह थीं सर्वदिक्
‘‘पुत्रं देहि’’ की प्रार्थनाएँ!
कालान्तर में मुझ पर क्या क्या न गुजरा
राणा का विषप्याला मैंने पिया
खाक छानी जंगलों की
हो हब्बा व लल्ला आरिफा
सिल्विया प्लाथ, मारीना स्वेतायेवा, सारा शगुफ्ता बन
करनी पड़ी है मुझे
कई बार आत्महत्या
शंकराचार्य ने
वेदपाठमात्र का हक छीना
बचती फिरती हूँ फतवों से
मैं बन तसलीमा
मेरा फतवा लेकिन है
वह फरमाने-खुदा
खुदा था जो
आदम की उस पसली पर
जिससे मेरे अल्लाह ने मुझे रचा
मैं हूँ शाश्वत बेघर
नहीं कोई मेरा घर –
रामप्रसाद
पंचवटी
अशोकवाटिका
वाल्मीकिकुटीर
धरती का बोझ
धरती की गोद
नहीं कोई मेरा अपना
अर्जुन को छीन
पाँच पतियों में
बाँटने वाली कुन्ती
जुए में
दाँव पर लगा डालने वाले पति
प्रतिज्ञाबद्ध क्लीव भीष्मपितामह
अथवा
महाप्रस्थान वेला में
मेरे देहत्याग को
न्यायसंगत ठहराते धर्मराज
मेरी वर्णमाला
है एकाक्षरा
जो ‘‘प’’ से प्रारम्भ हो
‘‘प’’ पर ही समाप्त हो जाती –
पिता, पुत्र व पति
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी
रागिनी भी
और मेरे गीत संगीत में
है मात्र एक स्वर ही
तुम बस तुम
मेरा गणित है
शून्य का गणित
शून्य-जिसके बिना असंभव हैं
तुम्हारे समस्त समीकरण
किन्तु स्वयं शून्य
मात्र शून्य
बलराम ने हल की नोक से
बार-बार दबा
कर डाला है मुझे
पूर्णरूपेण बौना
कभी शबरी
कभी अंरुधती
कभी श्रुतावती बनी
सदियों से मैं आई हूँ
बेर पकाती और खिलाती
व बना डाला है तुमने
रसोईघर को ही मेरा शवगृह
तुम्हारा अक्षयपात्र
रीत जाता है
मेरे भोजन से पहले
तुम्हारा बादल नहीं बरसता मेरे आंगन
तुम्हारा सूरज नहीं चमकता मेरे सहन
तुम्हारा बसंत नहीं उतरता मेरे उपवन
और मैं खड़ी हूँ आज तक –
प्यासी, अंधी व ठूंठ ।
मेरा इतिहास सदा
औरों ने लिखा है
व मेरा जीवन सदा
औरों ने जिया है
सदियों से चल रहे इस नाटक में
न सूत्र है मेरा, न सूत्रधार
न भाव-भंगिमाएँ, न मुद्राएँ
यहाँ तक कि
दर्शक भी नहीं हैं मेरे
आज
तुम्हारा साथ देने के लिए
अपनी आँखों पर बांधी पट्टी
मैंने हटा दी है
व सब कुछ स्पष्ट दीख रहा है –
तुम्हारा मृगमारीचिकी
मायामृगी मोहपाश
जंगलकानून नियन्त्रित
तुम्हारा नन्दनवन
जो वास्तव में है क्रन्दनवन
कैद हैं जहाँ
मेरे कामधेनु व कामवृक्ष
इस बार
मैं
राह में
स्वर्णफल व स्वर्णमृग के छलावे में
न्हीं आऊँगी
नित्यप्रति देती रही हूँ अग्निपरीक्षा
जलती रही हूँ रोम-रोम
व बन गई हूँ
राख की मात्र एक ढ़ेरी
भीतरी की सुलगती चिंगारी ने
किन्तु मेरा साथ दिया है
और मैंने
राख से
स्वयं पुनर्जन्म लेने का
क्कनूसी धर्म सीख लिया है
स्व-मन्थन कर आज मैंने
प लिया है अपना
अमृत कलश
व निरर्थक हैं अब कर डाले –
तुम्हारी चिताओं की अग्नि
तुम्हारे विष के प्याले
न मां छिन्दन्ति शस्त्राणि
न मां दहति पावक:
काल की यज्ञवेदी पर बैठ
करती निर्भय वेदमन्त्रोच्चारण
साहस की अंजुलि में
भर जागृति का जल
ले संकल्प की हवि
डाल रहीं हूँ मैं आहुति
व कर रही हूँ आह्वान आज
एक नये युग का –
कन्यां देहि!
कन्यां देहि!!
कन्यां देहि!