*मर्सिया*
(2016 की मनहूस फरवरी-मौत हरियाणा की)
कैसा आलम था
कैसी दहशत थी
आग थी खून था
और वहशत थी
थी नदारद पुलिस
या 'उन 'के संग
फ़ौज पत्थर की
जैसे मूरत थी
शक्ति-नगरी से
कुछेक मीलों पर
ख़ूनी तांडव
कई दिन
चलता रहा
टूटते रहे
चूड़ियाँ कंगन
महल जम्हूरियत का
जलता रहा
'गोल्ड-जुबली' के
जश्नी साल में ही
मेरे हरियाणा की
है मौत हुई...
मेरे ग़म में
शरीक होने को
कोई भी ख़ैरख्वाह
नहीं आये
कोई भी रहनुमा
नहीं पहुंचे
न मसीहों के ही
मिले साये
एक साजिश है
बस ख़ामोशी की
गूंजती है तो
मेरी सिसकी ही
अब है
हर ग़ज़ल
ग़मज़दा बेवा
हरेक नज़्म है
ज्यों मर्सिया...
रश्मि बजाज
(अज़ीज़ दोस्तों,ये मर्सिया लंबे वक्त से मेरी कलम पर मेरी माटी का उधार था...इसे चुकाए बिना जीना दुश्वार था!)
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