Friday, 23 March 2018

RASHMI BAJAJ HINDI POEM 'YO BHAGAT SIGH KAUN JAAT THA JI'

यो भगतसिंह कौन जात था जी?

शहीदे-आज़म!
शहीदी दिवस पर
हो रहे हैं
भारी-भरकम
आयोजन,
चल रहे हैं
धुआंधार भाषण,
पहनाये जा रहे हैं
तुम्हारी प्रतिमाओं को
लाल,नीले
हरे,केसरिया
वस्त्र-आभूषण,
'बम-वालों' से
'बम-बम लहरी' वालों तक
कर रहे हैं सब
तुम्हारा महिमा-मंडन
पूजन-वंदन!

अनजानी आज़ादी के
तराने गाने वाले,
भारत के हों सौ टुकड़े
चिल्लाने वाले,
भारत माता की जय
नारे लगाने वाले,
पत्थर,राइफलें
उठाने वाले,
त्रिशूल,फरसे
चलाने वाले,
समितियां,एन-जी-ओ
बनाने वाले,
सारे जियाले
क्रांति-दूत,भ्रांति-पूत
कह रहे हैं
खुद को
तुम्हारा होनहार वंशज!

सोचती हूँ
मेरे भगतसिंह,
गर आज तुम्हें
बहरों को
सुनाने के लिए
फैंकना होता बम
तो कहाँ-कहाँ
और कितने बम
फैंकते तुम-
अमानवीय,षड़यंत्री-अड्डों
असेम्बलियों में
या फिर
अंधे,गूंगे, बहरे बने
स्वार्थ-निद्रा लीन
शहरों,गाँवों
जनपदों में भी
जो जब भी
आंख खोलते हैं
तो बोलते हैं
सिर्फ कुछ
चुनिंदा शब्द-
मैं, मेरा धर्म
मेरी जाति, मेरा वर्ग
लगी है जहां
अंधी दौड़,होड़
कहलाने की
पिछड़ा,अल्पसंख्यक!

आहत-मना मैंने
आज निश्चय कर
विस्तार से
सभाओं में ,मंचों से
किये हैं सांझे-
तुम्हारा दर्शन
तुम्हारा स्वप्न
तुम्हारी दृष्टि!

और अभी-अभी
एक नए उगते
युवा क्रांतिकारी
छात्र-नेता ने
पूछा है मुझसे
"न्यों तो बतलाओ
यो भगतसिंह
कौण जात था जी?"

(मेरे पास कोई उत्तर नहीं है-
आपके पास हो तो  अवश्य बतलाइयेगा मित्रो)

2 comments:

  1. नमन है आपको और आपकी लेखनी को

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  2. निरुत्तर हूँ
    रचनाकार: मधु शुक्ला


    तर्क गूँगे हो गए सब
    मौन सा स्‍वर हूँ
    मैं तुम्‍हारे प्रश्‍न के
    आगे निरुत्तर हूँ

    प्रश्‍न है नाजुक तुम्‍हारा
    खुरदुरी मेरी सतह
    और उस पर द्वंद्व की
    ये नागफनियाँ बेवजह
    शब्‍द से जो है परे
    वह दृष्टि कातर हूँ

    फिर रही हूँ मैं हवाओं में
    विचारों की तरह
    न तो धरती है न अंबर
    कौन सी मेरी जगह ?
    शून्‍य में हूँ या कि मैं
    ऊँचे शिखर पर हूँ

    कल्‍पनाओं के उभरते
    बिंब धुँधले हो चुके
    पंख की तुम बात करते
    पाँव की तुम बात करते
    पाँव मेरे खो चुके
    अब अहिल्‍या की तरह
    बस एक पत्‍थर हूँ

    चल रही इस कश्‍मकश का
    दिख न पाता छोर है
    पाँव के नीचे हमारे
    काँपती इक डोर है
    मिट गई जिसकी लकीरें
    वो मुकद्दर हूँ

    जिंदगी की मैं अधूरी
    रूप रेखा सी हुई
    आज खुद से ही पराजित
    चित्रलेखा सी हुई
    हो न पाया जा सफल
    मैं वो स्‍वयंवर हूँ

    विष छुपा है या कि अमृत
    अब समय मंथन करें
    गर्भ में इसके उतरकर
    अनवरत चिंतन करें
    मैं सदी की हलचलों का
    वो समंदर हूँ

    मैं तुम्‍हारे प्रश्‍न के आगे
    निरुत्तर हूँ

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