Saturday, 4 June 2022

HINDI CINEMA,HINDI POETRY AND THE JOURNEY OF CYCLE-FROM ROMANCE TO PHILOSOPHY


*साइकिल,हिंदी सिनेमा और कविता *

जनवाहन 'साइकिल ' मात्र एक वाहन न होकर  साहित्य और सिनेमा में एक प्रतीक और विमर्श बन गया है। हिंदी सिनेमा एवं हिंदी कवियों को इस द्विचक्रिका ने अच्छा- खासा आकर्षित किया है। हीरो -हीरोइन के रोमांस, हीरो की मस्ती, हीरोइन और उसकी सखियों द्वारा एक खास प्रकार की 'स्वतंत्रता'की अनुभूति से लेकर जीवन - दर्शन  का प्रस्तुतिकरण - बॉलीवुड में 'साइकिल और हम साथ साथ हैं'।' कभी सायरा बानो साइकिल पर झूमती हुई ऐलान करती हैं_" मैं चली मैं चली देखो प्यार की गली", कभी नरगिस प्यार के पंख लगा पंछी बन साइकिल को साथ लेकर सड़क को ही मुक्ताकाश बना लेती हैं " बन के पंछी गाएं तराना प्यार का", अनिल धवन चाहत लिए घूमते हैं "गुज़र जाएं दिन-३ ,हर पल गिन-३, किसी की हाय यादों में ,किसी की हाय बातों में "...गोविंदा जूही चावला को जबर्दस्त ऑफर देते हैं  "चांदी की साइकिल , सोने की सीट/आओ चले डार्लिंग चलें डबल सीट", भंवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुंवर" की पीड़ा दिल में लिए  ऋषि कपूर  पद्मिनी कोल्हापुरे को साइकिल के डंडे पर बिठा-घुमा प्रतीकों में अपनी प्रेम- कथा सुनाते हैं तो "हे मैंने कसम ली , हे तूने कसम ली" में साइकिल देवानंद - मुमताज के प्रेम की साक्षी भी बनती है। अलग अंदाज़ वाले किशोर कुमार का  दावा है:"माइकल है तो साइकिल है माइकल नहीं तो साइकिल भी नहीं", आमिर खान और स्टूडेंट गैंग साइकिल की गद्दी को 'राजगद्दी 'बना हुंकार भरते हैं: " यहां के हम सिकंदर"। सिने- जगत की साइकिल के साथ जुड़ी जीवन-संघर्ष की एक 'विजुअल इमेज' जो भारतीय-मानस में हमेशा के लिए एक सजीव दृश्य एवं प्रेरणा बन कर 'फिक्स' हो गई  है :"जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबहो- शाम /रास्ता कट जाएगा मितरा/ बादल छट जाएगा मित्रा "-की पृष्ठभूमि में जीने की जद्दोजहद करते मनोज कुमार---साइकिल अनेकानेक रूपों में बॉलीवुड-प्रेरित एवं केंद्रित आम भारतीय की प्रिय संगिनी है।

हिंदी कविता में साइकिल एक गंभीर विषय है। वीरेंद्र डंगवाल की  साइकिल- विषयक कविता की पंक्तियां हैं :

"अक्‍सर गंभीर लोग
साइकिल का हैंंडल थाम
लम्‍बे विचार-विमर्श करते थे"

और हमारे कवियों ने भी साइकिल पर संजीदा कविताएं लिखी हैं।  केदारनाथ सिंह के महत्वपूर्ण  काव्यसंग्रह के शीर्षक में साइकिल सम्मिलित है- " टॉलस्टॉय एवं साइकल"।वीरेंद्र डंगवाल एवं कृष्ण कल्पित की  विस्तृतफलक वाली सुंदर कविताओं में स्मृतियां, चाहतें, कवि‌ का जीवन -दर्शन , सामाजिक-सांस्कृतिक- साहित्यिक संदर्भ गुम्फित हैं।

वीरेंद्र डंगवाल के यहां  साइकिल है  -'मज़बूर किंतु 
स्वाभिमानी आदमी की सवारी ', पोस्टमैन उस पर बैठ कर आएगा मुस्कुराता', और 'अखबार वाला अपनी सनातन जल्दबाजी' में या 'शहर के सीमांत से आने वाला ड्राइवर' या फिर' दिहाड़ी मज़दूर'।वीरेंद्र डंगवाल के कविता- संसार में साइकिल को सार्थक करते हैं- जिजीविषा एवं जीवटयुक्त कर्मयोगी-

"एक आस को
 जिलाए रखने को 
भटकते भटकते बेदम हुए जाते वे हठीले भाईबंध 
जिन्हें थक कर बैठ जाना मंजूर नहीं"

 'रेख्ते के बीज एवं अन्य कविताएं', 'हिंदनामा'  जैसी ख्यात कृतियों के रचयिता कवि  कृष्ण कल्पित  Kalbe Kabir  के यहां

 "एक साइकिल की कहानी 

अंततः एक मनुष्य की कहानी है!"

 निर्जीव होते हुए भी साइकिल सजीव मनुष्य से कहीं अधिक ज़िंदा है-

"यह मनुष्य से भी अधिक मानवीय है 

चलती हुई कोई उम्मीद 

ठहरी हुई एक संभावना 

उड़ती हुई पतंग की अँगुलियों की ठुमक 

और पाँवों में चपलता का अलिखित आख्यान 

इसे इसकी छाया से भी पहचाना जा सकता है "

साइकिल का विशिष्टता एवं सार्थकता यह है ‌कि यह  आमजन का वाहन है देवगण अथवा गणमान्य का नहीं :

"मूषक पर गणेश 

बैल पर शिवजी 

सिंह पर दुर्गा 

मयूर पर कार्तिक 

हाथी पर इंद्र 

हंस पर सरस्वती 

उल्लू पर लक्ष्मी 

भैंसे पर यमराज 

बी. एम. डब्ल्यू पर महाजन 

विमान पर राष्ट्राध्यक्ष 

गधे पर मुल्ला नसररुद्दीन 

रेलगाड़ी पर भीड़ 

लेकिन साइकिल पर हर बार कोई मनुष्य 

कोई हारा-थका मज़दूर 

स्कूल जाता बच्चा 

या फिर पटना की सड़कों पर 

जनकवि लालधुआँ की पत्नी 

कैरियर पर सिलाई मशीन बाँधे हुए 

साइकिल अकेली सवारी है दुनिया में 

जो किसी देवता की नहीं है "

कवि के लिए यह मनुष्य की आदि -मित्र है जो साथ है कवियों और सिनेमाकारों के:

 "मनुष्य और मशीन की यह सबसे प्राचीन 

दोस्ती है जिसे कविता में लिखा पंजाबी कवि 

अमरजीत चंदन ने और सिनेमा में दिखाया 

वित्तोरियो दे सिका ने ‘बाइसिकल थीफ़’ में "

सर्वहारा- सवारी साइकिल जुड़ी है मनुष्यता से - समाज के आखरी पायदान पर खड़े आखरी व्यक्ति से -

"ग़रीबी, यातना और अपमान की जिन 

अँधेरी और तंग गलियों में 

मनुष्यता रहती है 

वहाँ तक सिर्फ़ साइकिल जा सकती है "

हमारे मनहूस दौर में दैनिक जीवन का हिस्सा बनती हिंसा   के  प्रभाव से  साइकिल और साइकिल वाले भी  कहां बच पाते हैं - टिफिन कैरियर में रोटी की जगह बम परोसती हमारी सभ्यता और संस्कृति का भविष्य कहीं खलाओ में खो गया ही मालूम होता है।

"घटना-स्थल पर पाई गई सिर्फ़ इस बात से 

हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि 

साइकिल का इस्तेमाल मनुष्यता के विरोध में 

किया गया जब लाशें उठा ली गई थीं 

और बारूद का धुआँ छट गया था तब 

साइकिल के दो चमकते हुए चक्के सड़क के 

बीचोबीच पड़े हुए थे घंटी बहुत दूर 

जा गिरी थी और वह टिफ़िन कैरियर जिसमें 

रोटी की जगह बम रखा हुआ था कहीं 

ख़लाओं में खो गया था। "

साइकिल, मनुष्यता और मानवता कृष्ण कल्पित के  संसार में समानार्थक हैं।ना साइकिल का कोई 'शोक गीत 'हो सकता है ना मनुष्यता और मानवता का!

जहां बॉलीवुड के लिए साइकिल कुछ अपवाद छोड़कर अधिकतर एक रोमांस और मस्ती से जुड़ा उपकरण है, वहीं  कवितालोक में  इसका  प्रतीकात्मक एवं विमर्शात्मक महत्व हो जाता है विशेष कर ‌तब जब यह वीरेंद्र डंगवाल और कृष्ण कल्पित सरीखे समर्थ ‌कवियों के विचार एवं भावजगत का वाहन बन जाए!

तो दोस्तो, विश्व साइकिल दिवस मुबारक!

आइए ,गतिमान रहें , कर्मठ रहें, मनुष्यता से मानवता की यात्रा शुभ हो... 💐

1 comment:

  1. इन्दौर के मित्र एवं कवि 'आशुतोष दुबे' की एक पोस्ट :

    साइकिलें तब आज जैसी तकलादू और तन्वंगी नहीं होती थीं। वे हैंडल से कैरियर तक मजबूत होती थीं और वैसी ही दिखाई देती थीं। बहुत पहले तो उनमें लाइट भी होती थी जो अक्सर खराब हो जाती थी, लेकिन उनकी बड़ी और मजबूत घण्टी वैसी ही बनी रहती थी।

    पिता जी ने सिर्फ़ यही एक वाहन चलाया। अपने जीवनकाल में न जाने कितने किलोमीटर उन्होंने साइकिल से नापे होंगे। दुनिया जब स्कूटर पर सवार हो रही थी, वे साइकिल पर कायम रहे। साइकिल कभी उनकी शर्मिंदगी नहीं बनी। आज साइकिल मजदूरों का वाहन है जो उसके कैरियर पर कपड़े की थैली में रखे टिफिन को फँसा कर सुबह सुबह काम पर निकल जाते हैं या वर्जिश की ख़ातिर फ़ैशनेबल लोगों का जो हैंडल पर अदा से झुके हुए फ़िटनेस की सड़क पर उसे चलाते हैं।

    लगभग पचहत्तर साल की उम्र तक उन्होंने साइकिल चलाई होगी। उसे हम घर के बाहर ही एक खम्भे से चेन से बांधकर रखते रहे।

    एक दिन हमने सुबह उठ कर देखा: चेन तो पड़ी है, साइकिल चोरी हो गई है।

    हमें इसी साइकिल पर बैठा कर वे अनन्त चतुर्दशी का जुलूस दिखाने ले गए थे। बस छूट जाने पर स्कूल ले गए थे। सुबह की परीक्षा के लिए हम इसी पर बैठकर उत्तर याद करते हुए गए थे। इसी पर हमने बड़े भाइयों से साइकिल चलाना सीखी थी।

    साइकिल की चोरी एक सदमा थी, एक ऐसे समय में भी जब साइकिल के अच्छे दिन इतिहास में जा चुके थे। पर उन्होंने इसका कोई रंज नहीं किया। कम से कम दिखाया कुछ नहीं। वे हर स्थिति में एक जैसे बने रहते थे।

    फ़िटनेस वाली फ़ैशनेबल साइकिल अब घर में है, जिसे शौकिया चलाया जाता है। वह एक अलग ही प्रजाति की चीज़ है। चोरी गई उस साइकिल की दूर की रिश्तेदार भी नहीं लगती।

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