आज फिर दो गाँवों की बेटियों का स्कूल लफंगों के आतंक से छूट गया।न ये पहला हादसा है न आखरी!
*फ़कत किस्सा*
हमसे पूछो कि
कुफ़्र क्या है
हैं गुलामी क्या
कैसा लगता है
क़त्ल होना
माँ की
कोखों में
कैसा होता
है जीना
साये में
तलवारों के
कैसे हैं
टूटें तख्तियां
किताबें फटती हैं
कैसे होती
है सुबह
कैसे शाम
ढलती है
कैसे मैय्यत
किसी की
जीते जी
निकलती है
कैसे सब ख्वाब
टूट कर यहाँ
बिखरते हैं
कैसे सब
गुल यहां
खिलने से पहले
झड़ते हैं
हमसे पूछो कि
ज़ुल्म क्या है
और है
दहशत क्या
हमसे जानो कि
बेबसी औ बेकसी
क्या है
हमसे पूछो कि
ज़ख्म रूह के
क्या होते हैं
तुम क्या जानो
ये चाँद-तारे
काहे रोते हैं
कहाँ तुम
दर्द मेरा
और ये
सितम पूछोगे
तुम जो पूछोगे
तो फिर
जात धरम पूछोगे
कोस के
गद्दीनशीनों को
चल पड़ोगे फिर
अपने उस
रस्ते पे
जो मुझ तलक
आता ही नहीं
मेरी तकदीर
नामुराद
संवरती ही नहीं
गद्दियाँ बदलें
ये तारीख
बदलती ही नहीं
ऐसा क्यूं है
तुम्हारे इंकलाबी
नारों में
मेरी आज़ादी
का नारा
कोई कहीं
भी नहीं
उड़े फिरते
हो तुम
सतरंगी
आसमानों में
मेरे हिस्से में
आज तक है
ये ज़मीं
भी नहीं
शहर से अपने
मेरे गाँव को
आओ तो सही
मेरे सा
एक दिन
इक रात
बिताओ तो सही
कोई नारा
मेरी जानिब से
लगाओ तो सही
कोई तूफां
मेरी खातिर भी
उठाओ तो सही
ऐ मेरे
इंकलाबी!
आग जो सच्ची
है तेरी
तुझे देती हूँ सदा
आ यहां
तलवार उठा
जंग असली
यहीं है
और है
जिहाद यहीं
हस्ती औरत की
मिटी जाती है
खामोश है तू
या तो
औरत नहीं है
तेरे जहां
का हिस्सा
या तो
ये इंकलाब
तेरा है
फ़कत किस्सा!
रश्मि बजाज
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