*विडम्बना *
मज़दूर-दिवस -
चिर-प्रतीक्षित दिन
जमावड़ों ,लिखावड़ों का
खूब कटेगी आज फसल
बेबसी मज़बूरी
कंगाली बदहाली की
लिखी सुनाई जाएँगी
मनों ,टनों
तकरीरें ,कवितायेँ
आयोजित होंगे
अनगिनत
सम्मलेन,नाटक,सभाएं
फड़फड़ायेंगे
लाल नीले हरे केसरिया कबूतर
उतर आएंगे
सत्ताधीश,विपक्षी
खेलते दोषारोपण के
पिंग-पांग मैच
जन-मैदान पर
बिठाए जायेंगे
नए सियासती समीकरण
की जायेगी
संख्या-गणित की
नई तिजारत
लहराई जाएँगी
विचारधाराओं की
धारदार तलवारें
तोड़े जायेंगे
कुछ पुराने बुत
तामीर होंगे
कुछ नए बुतकदे
करेंगे आज सब
घोषित खुद को-
समाजवादी प्रगतिशील
सर्वहारा-समर्थक
गलियाये जायेंगे
पूँजी,पूंजीपति
भड़केगी आग
घृणा की आक्रोश की
फिर कुछ घंटों में
उतर जायेगा
सारा ज्वर
सब ज्वार
ख़त्म हो जायेंगे
धरने ,फंक्शन,सेलिब्रेशन
हो जायेगी रुखसत
इंकलाबी-जमात
इस सारी
उठा-पटक
सारी जोड़-तोड़
से परे
कहीं दूर-
'करमा '
कूटेगा पत्थर
चिलचिलाती धूप में
आज भी
सारा दिन,
'कल्लू 'के
फेफडों में धुखेगा
भट्टियों का
दमघोटू धुंआ,
आँखों छातियों से
पानी बहाती
'संतरो 'की
भूख से
बिलबिलाती बच्ची
लहूलुहान करेगी
चूस-चूस कर
अपना गला मुरझाया अंगूठा
तड़पती तरसती
रहेगी
मेरी प्यासी
झुलसी धरती
पाने को
दो बूँद बारिश
महोब्बत की...
- रश्मि बजाज
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