दोस्त,तुम्हारे भीतर
की स्त्री
है छ्द्म-विस्तार
मूर्त-निर्मिति
तुम्हारी
पुरुष-चेतना की ही
देह-गंगोत्री
से जन्मी
करती अपनी
समस्त यात्राएं
समा जाती है
वह अंततः
देह-सागर में ही
मेरे भीतर
की स्त्री
है बहुत अजीब
बहुत उद्दंड
बड़ी घुमन्तु
देह है
उसके लिए
एक ओढ़नी
जो ओढ़ती
है वह
हर सुबह
देह है
एक बिछौना
बिताती है
जिस पर वह
इक रात बस
और अगले दिन
ओढ़नी ,बिछोना झाड़
चल पड़ती है
कहीं दूर
कहीं आगे
सबके पार
तुम्हारी स्त्री
और मेरी स्त्री
हैं कुछ कुछ
एक सी
पर दोनों
बोलती हैं
अलग भाषा
अलग बोली
कुछ पंक्तियाँ
अनूदित करते ही
पटकती ज़मीन
पर पांव
तोड़ पृष्ठों ,शब्दों
के बंध
पकड़ मेरा हाथ
रखवा मेरी कलम
खींच ले जाती है
अपने साथ
मेरी स्त्री मुझे
और कहीं
मित्र ,माफ़ी!
-----रश्मि बजाज
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